Friday, November 27, 2009

टूट पड़ा सोज़ का ऐसा कहर



ईश्क में मिले दर्द की दवा ढूढता रहता दरबदर,
कैसा बेरहम सा रोग दिया तुने मुझे ए हमसफर.

दुनिया क्या जाने मेरे आँसुओ में खून मिला है,
कहा छुपाऊ रुसवा चेहरे को बता दे मुझे रहगुज़र.

तू क्या जाने कत्लगाह सी मुझे दुनिया लगती,
तेरी यादों के अक्स लिए होती मेरी हर शामो-सहर.

मिले मुझे जहा सुकून की मंजिल का रास्ता,
ए खुदा कर रहम बना दे निशात की वो नहर.

तुम तो चल दिए हँस के, मुड़ कर भी ना देखा,
क्या बताये कैसे पी गये सितम का ये कड़वा ज़हर.

अब कहा से लाऊ रूठ चुकी खुशियों की वो बहार,
उम्मीद न थी जिसकी टूट पड़ा सोज़ का ऐसा कहर.

2 comments: