Tuesday, December 01, 2009

उन दिनों जब तेरी मोहब्बत का तलबगार हुआ था



उन दिनों जब तेरी मोहब्बत का तलबगार हुआ था,
मै चाहतों के हसीन सिलसिलों से दो चार हुआ था.

मेरी जुबा पर उन दिनों बस एक नाम चढ़ा रहता,
दिल में मदहोशी का इक जूनून इख़्तियार हुआ था.

क्या बताये वक्त ए फ़साना उन बीते दिनों का दोस्तों,
मेरा दिल रातों को तड़पते हुये कैसे बेकरार हुआ था.

क्या कमाया क्या गवाया ये तो नहीं मालूम चला,
नजरों से मोहब्बत के शूलों का इक कारोबार हुआ था.

कहते है ज़माने वाले एक बर्बाद शायर हू मै ईश्क में,
ये दिल उसकी चाहत के आगोश में गिरिफ्तार हुआ था.

बया करू तो अहसासों की ये एक लम्बी कहानी है ,
बहारों से खिला-खिला हसरतों का गुलज़ार हुआ था,

बैठा हू तेरी नज़र के सामने तू पैमाने को भरता जा,
क्या बताये उस दौर में मुझे ए साकी प्यार हुआ था.

No comments:

Post a Comment