Tuesday, December 01, 2009

कहा मैंने कभी मौजे ए महफ़िल को सजाया है


इस शाम की तन्हाई का ये जो आलम छाया है,
हँसी इक तवक्को बनी आँसुओ से इसे सजाया है.

हर मजालिस मेरी सुनी बेकार हर इल्फात गया,
गैरो की क्या बात करे हमे अपनों ने सताया है.

जब कभी शिकवो के मज़मून दिमाग में आये,
बेवफा यादों को मैंने रो रो कर फिर जलाया है.

जब कभी इस ज़माने ने पुराने जख्म छेड़े तो,
हमने साकी को बुला फिर खुद को बहलाया है.

किस्मत को कोसू या खुद को कसूरवार कहूँ,
सोज़ ने मुझे बेरहम दिल हो कर सताया है.

इस वक्त और मेरे दरमियान काफी दूरी है,
कहा मैंने कभी मौजे ए महफ़िल को सजाया है.

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