Friday, October 09, 2009

जब लगी थी ठोकर..


लगी एक ठोकर गिर गया वो शख्स,
रोकने की कोशिश, बह गए उसके अक्स.
जिंदगी को भूल चला था राह, उन दिनों,
मिले एसे घाव, संभलने में लगे महिनों.

गुज़रा उसका वक्त, समझने लगा ये दुनिया,
मिल ही गया उसे सच्चाई का बेरहम आईना.
अब दोबारा चला है वो मंजिल के फतेह का सफ़र,
पर अब नहीं है उसका कोई हमराही, हमसफ़र.

काँटों की राह पे चलके, सिखा है चलना,
वो चाहता नहीं दोबारा गमों से मिलना.
जीना हर लम्हें को उसका है मकसद,
अब पसंद नहीं और दुखों की उसे दस्तक.

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