हर रात व्यर्थ के कल्पनाओ के संगम की कहानी बन गयी,
जिंदगी जैसे चंद लम्हों में ढह गयी, एक निशानी बन गयी.
इन कागज के टुकडों जैसी ना जाने क्यों जवानी बन गयी.
बात क्या हुयी जानू ना, दुनिया की चाहत मुझसे बेगानी बन गयी.
कांच के टुकडों में देखता तस्वीर अपनी, उम्मीद तो जैसे एक बईमानी बन गयी,
चाहू ना चाहू, हर बंधन हर रस्म को निभाना आज जैसे मनमानी बन गयी.
एक-एक दिन गुजरता लगता सफ़र सदियों का, सूरज का ढलना परेशानी बन गयी,
हँस रहा शख्स अंदर का मेरे, उसकी तो महफ़िल जैसे सुहानी बन गयी.
ये दर्द ये सिकन, इनकी सोहबत जैसे मेरी दीवानी बन गयी,
यहाँ हर मोड़ अकेला, हर राह खाली, फितरत कैसी ये इंसानी बन गयी.
मेरे लबों पर हँसी,दिल है सवाली, मंजिल बस मेरी मुहजबानी बन गयी,
बिन स्याही, बिन कागज, देखो ये कैसी मेरी आज कहानी बन गयी.
waah waah lucky bahut achha likha hai
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